वर्क टू रूल का अर्थ आप के लिए क्या है ?
अगर इसका अर्थ नियम अनुसार काम है तो इसे हथियार क्यों माना जाता है और इससे लोग डरते क्यों हैं ?
इस छोटे से प्रश्न का उत्तर बहुत बड़ा है। केवल आकार में ही नहीं परिणामों में भी। बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हैं यह बात समझने में।
पहले समझते हैं यह वर्क टू रूल है क्या ? क्यों यूनियनवाले इन शब्दों को धमकी बनाकर प्रयोग करते हैं और क्यों मैनेजमेंट के इन शब्दों से तोते उड जाते हैं ? अगर नियमों के अनुसार काम होगा तो मैनेजमेंट को तो खुश होना चाहिए, काम सुचारु रूप से हो इसीके लिए तो नियम बने होते हैं ना ? फिर ?
सब से बड़ा छलावा यही है । जो नियम हैं उनके अनुसार ठीक से काम हो नहीं सकता । क्योंकि काम का स्वरूप बदल चुका होता है और नियम वही पुराने होते हैं जिन्हें काम में होते रहे बदलाव गया के साथ बदला नहीं गया । क्योंकि जहां भी ये वर्क टू रूल की बात होती है, वहाँ यूनियन होती ही है, जिसका मतलब यह भी होता है कि नियम सरकार के बनाए हुए हैं । अब वे नियम तो जनरल हैं याने सभी इंडस्ट्री पर लागू होते हैं या उस विशिष्ट इंडस्ट्री पर लागू होते हैं। और अगर यूनियन बनी है मतलब वहाँ वामपंथी हैं ही ।
निचोड़ यह है कि नियमों में समयानुसार बदलाव हुआ नहीं है क्योंकि सरकारी नियम बदलना आसान नहीं होता, नियमों में बदलाव होना एक बहुत धीमी प्रक्रिया होती है । इसलिए नियमों की आड़ लेकर मैनेजमेंट को घुटनों पर लाना यूनियन के लिए बहुत आसान होता है । एक बार हड़ताल से लड़ना गंवारा होता है, यह वर्क टु रूल झेलना कठिन होता है क्योंकि कहने को काम हो तो रहा है लेकिन सभी बे भरोसेका मामला होता है ।
जहां फ़ैक्टरी है वहाँ काम के लिए स्किल्ड वर्कर भी चाहिए, अनुभवी भी । रातोरात नए लोग नहीं आ सकते । जो हैं उनसे ही काम लेना पड़ता है । फ़ैक्टरी ही क्यों, बैंक हो या सरकारी दफ्तर, सभी जगह यही होता है । इसीलिए वर्क टु रूल नाक में दम कर देता है । किसी सरकारी कंपनी या बैंक वगैरा के HR वालों से पूछ लीजिएगा।
ब्यूरोक्रेसी अधिकारिक रूप से वर्क टू रूल नहीं करती, लेकिन ऐसे रूल सामने कर देती है कि मंत्रीमहोदयों की हालत खराब हो सकती है । क्या करना है यह सोचना मंत्रीमहोदय को होता है, ब्यूरोक्रेट तो सिस्टमो रक्षति रक्षित: होता है ।
जब कई लोगों को लिखते देखता हूँ कि पूरी कायनात साथ है फिर भी यह सरकार कुछ नहीं कर रही, तब कनफ्यूज हो जाता हूँ कि लिखनेवाले को ये सब पेंच पता नहीं होते या जानबूझकर पब्लिक को उकसाने के लिए लिखते हैं । क्या इनको Compliant System, Complicit System और Resistant System में क्या अंतर होते हैं, पता ही नहीं ?
एक बात बताईये, क्या आप compliant सिस्टम, complicit सिस्टम और resistant सिस्टम क्या होती है और इनका फर्क क्या होता है यह जानते हैं ?
तीन इंग्लिश शब्द हैं – जिनके हिन्दी अर्थ भी दे रहा हूँ । इन्हें समझते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं।
अगर हम पहले शब्द को लेते हैं तो मज़े की बात यह है कि complaint – कंपलेंट और इसमें सभी अक्षर समान हैं लेकिन दोनों का अर्थ लगभग धुर विरोधी है । अस्तु, आगे बढ़ते हैं ।
1 Compliant – कोम्प्लायंट – आज्ञाकारी, बात पर न अडनेवाला ।
2 Complicit – कोंपलिसीट – सहापराधी, बुरे काम में साझीदार ।
3 Resistant – रेजिस्टंट – अवरोध करनेवाला ।
लोकतान्त्रिक देशों में सरकारी सिस्टम की बात करें तो सिस्टम अगर सरकार के लिए compliant हो तो काम सुचारु रूप से चलेगा। यह आदर्श स्थिति है और बहुत सारे आदर्शों की तरह केवल किताबों में ही पायी जाती है । वास्तव में सिस्टम सरकार के लिए या तो complicit होती है या resistant ! अक्सर, सरकार और सिस्टम का तालमेल सरकार के हिसाब से नहीं बल्कि सिस्टम के हिसाब से होता है । Yes, Minister ! जिन्होने पढ़ी या देखी होगी उनको इसका अंदाज़ा होगा। बाकी सरकारी कर्मचारियों को यह सत्य अच्छी तरह पता होता है ।
जैसे पुरुष पति हो जाने पर पालतू बन जाता है वैसे ही कुछ नेता मंत्री होने के बाद सिस्टम के लिए compliant हो जाते हैं , जब कि लोगों में भ्रम होता है कि इसके विपरीत होता है । यह Yes Minister की थीम थी । बाकी जो है सो हईये ही है।
लंबी समय तक अपनी सरकार रहने के कारण काँग्रेस के लिए सिस्टम compliant बनी या complicit यह आप खुद समझ लीजिये, उतना तो आप को भी पता होगा ही । हाँ, इसमें कानूनपालिका का भी समावेश है ही, सिस्टम का वो भी एक महत्व का अंग है ।
कृपया अगर आप के पहचान में कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हों तो उनसे चर्चा कर लीजिये कि अगर सिस्टम अफसर के साथ खड़ा हो जाये तो अफसर पर कारवाई करने के लिए सरकार को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं । बहुत ही ज़िद की मंत्री जी ने तो तबादला होता है और धीरे से वापसी भी । किसी जज पर हाथ डालना तो नामुमकिन है । उनके कवच तो अभेद्य हैं ।
अशोक खेमका जैसे लोगों के ट्रांसफर्स किस तरह की सिस्टम करती होगी यह आप समझ जाइए । बाकी यही सिस्टम की एक विशेषता भी है कि वो ईमानदार अफसरों को चमकाती भी है । थोड़ी सी स्ट्रेटजिक पब्लिसिटी देगी ताकि लोगों को एहसास होता रहे कि नहीं, सिस्टम में अच्छे लोग भी हैं । लेकिन आप देखिये, ये जो लोग चमकते हैं उन्हें अक्सर चमकने ही दिया जाता है ताकि वे सिस्टम के मॉडेल्स हो सके, गुडविल एम्बासेडर्स बन सके । जहां सिस्टम को ईमानदार बनने पर मजबूर किया जा सके ऐसे ताकतवर पोजीशन्स पर ये लोग कभी नहीं आ पाएंगे ।
न खाऊँगा न खाने दूंगा कहनेवाले मोदी जी के लिए कॉंग्रेस से विरासत में मिलीं सिस्टम resistant ही होगी यह ध्रुव सत्य है और यही पग पग पर दिख भी रहा है । वैसे लगता है काँग्रेस काल में जिस तरह से सिस्टम का उपयोग किया जाता था और सिस्टम का भी साथ मिलता था उसी के कारण जनता में यह भावना है कि सरकार याने मंत्री जो चाहे कर सकते हैं और प्रधान मंत्री तो बस चुटकी बजाकर पूरे गांधी खानदान को बेड़ियों में बांध सकता है । और इसी भावना को काँग्रेसियों द्वारा ही हवा दी जा रही है कि अगर सरकार यह नहीं कर सकती तो वो काबिल नहीं है ।
दुर्भाग्य यह है कि अपने यहाँ जल्द बहकनेवालों की कमी नहीं है जो सिस्टम के पेंच नहीं समझते और आसानी से मान जाते हैं कि पहले होता रहता था, इनसे नहीं होता, ये काबिल नहीं हैं । “पाँच साल बहुत होते हैं” यह बहुत लोकप्रिय डायलॉग हुआ है लेकिन अक्सर इस डायलॉग को बोलनेवाला या तो सिस्टम की असलियत से अनजान होता है या फिर जान बूझकर बरगलानेवाला। और दोनों तुरंत इसे ईगो इशू बना देते हैं – “आप को क्या लगता है हमने दुनिया देखी नहीं, सब ज्ञान आप ही के पास है ?” ऐसे Cognitive Dissonance का कोई जवाब नहीं होता ।
पहले सिस्टम के साथ मिलीभगत होती थी और जो भी करप्शन आदि के केसेस बाहर आते थे, वे अक्सर उस संबन्धित व्यक्ति को उसकी औकात समझाने या उसके पर कतरने के लिए होते थे । उनके लिए आवश्यक सबूत सिस्टम ही मुहैया करती थी, अधिकारी अपनी पॉलिटिक्स मंत्रियों द्वारा कर लेते थे। सिस्टम से जो भी दो चार हुआ है, यह बात भली भांति जानता है, बोलता कोई नहीं इतनी ही बात है ।
कई लोग अब कहने लगे हैं कि मोदी जी को कठोरता दिखानी होगी । कठोरता याने क्या इसकी चर्चा करें तो बात इमर्जन्सी की करते हैं । इनमें अधिकतर लोगों की उम्र चालीस से बीस के बीच की होती है । उनके लिए इमर्जन्सी एक ऐतिहासिक घटना है जिसका उनपर कोई असर नहीं हुआ । मैंने खुद देखी है । उस समय कॉलेज में था और राजनीति की समझ थी । किस तरह लोग सहमे हुए थे यह स्वयं देखा है । किस तरह सरकारी अफसरों ने अधिकारों का दुरुपयोग किया यह भी देखा सुना है ।
कोई सुनवाई नहीं हुआ करती थी । लोग तो शिकायत करने से भी डरते थे ।
लेकिन क्या ये सब कुकृत्य इन्दिरा गांधी ने किये थे ? काँग्रेस ने किये थे ? नहीं ना ? अधिकतर तो अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों ने ही किये थे।
फिर भी, बिल उनके नाम का ही फाड़ा गया ना ? इमर्जन्सी जब लगाई जाती है तो एक दिन उसका उठाया जाना भी तय है । और एक बात जान लीजिये, इमर्जन्सी में सरकारी अफसरों द्वारा किये अत्याचार और अनाचारों की कोई तात्कालिक सुनवाई नहीं होती । शायद बाद में भी नहीं होगी । बंसीलाल के बारे में बहुत कुछ सुना, जो सुना उसके लिए उनको कोई सजा नहीं हुई । विद्याचरण शुक्ल का नाम भी काफी चर्चित था, उनको भी कुछ नहीं हुआ । जाने दीजिये, आज किसी के नाम उछालकर कुछ हासिल नहीं होना है ।
लेकिन आज आप को कई सारे लोग मिलेंगे जो कहते हैं कि वो समय बहुत अच्छा था, क्योंकि ट्रेनें समय पर आती थी, कोई हड़ताल नहीं होते थे और पुलिस से गुंडे डरते थे । किन्तु इससे अधिक कहने को उनके पास कुछ नहीं होता ।
आप जरा खोद कर पूछेंगे तो एक ही जवाब मिलता है – हाँ, जो लोग पॉलिटिक्स में थे, विपक्ष में थे उनको तकलीफ हुई ऐसा सुना था । बाकी जबरन फॅमिली प्लानिंग के किस्से भी सुने थे, लेकिन क्या पता सच थे या झूठ । बाकी हम तो हमारी ज़िंदगी जी रहे थे भाई, हमें पॉलिटिक्स से क्या लेना देना हम तो वोट डालने भी नहीं जाते । वैसे भी हमारे वोट से क्या फर्क पड़ता है ? पूरा बूथ कैप्चर आदि तो होता ही है तो हम क्यों न अपनी ज़िंदगी शांति से जिये ?
ठीक ऐसी ही बातें मेरी नानी और उसके उम्र के कई लोग कहा करते थे ब्रिटिश हुकूमत को लेकर । तब तो कोई पॉलिटिक्स भी नहीं था और ना कोई वोट ।
तो फिर क्यूँ खामखां ही अंग्रेजों से लड़कर स्वतंत्र हुए हम, नहीं ?
अस्तु । अगर इमर्जन्सी दुबारा आए तो गैरंटी है कि मोदी से नाराज सरकरी अधिकारी जनता पर कहर बरपाएंगे । सोशल मीडिया तो banned होगा ही, ईमेल आदि पर भी पाबंदी आएगी । कहाँ कहाँ किसको किसको क्या चेकिंग के नाम पर क्या तकलीफ दी जायेगी आप ही सोच लीजिये । इमर्जन्सी के समय तो केवल मुख्य मीडिया वह भी पेपर ही, कंट्रोल करने थे, आज बहुत कुछ कंट्रोल करना होगा। हो तो जाएगा, लेकिन यह सब सरकारी कारिंदों को आप को सताने के मौके देगा ।
राजस्थान, मध्य प्रदेश में तो काँग्रेस सरकार आई है उसका दबाव महसूस हो ही रहा है।
सही जवाब ! मोदी जी के नाम ही फाड़ा जाएगा !
कम्प्यूटर्स, कंझुमरिज़्म और इलेक्ट्रॉनिक्स ने एक चीज कर दी है जिसका कोई RESET नहीं । सब का पेशन्स खत्म कर दिया है । कुछ लोग तो इसे गौरव की बात भी मानते हैं, खास कर वे लोग जो प्राइवेट सैक्टर में अच्छे पोजिशन पर होते हैं । I don’t have much patience यह वाक्य काफी प्रचलित है, अनुभवित भी है । कभी स्ट्रैस के कारण जिन व्यसनों की ये शिकार होते हैं उससे कैंसर अक्सर होता है । उससे लड़ाई पैसों के साथ पेशन्स भी मांगती है लेकिन यह सीख too costly, too late होती है ।
गुजरात में लंबी पारी खेली मोदी जी ने, वहाँ सिस्टम को लगभग compliant बना दिया था। शायद सोचा होगा, राज्य ठीक से चलाया तो देश भी चला सकेंगे।
नहर के जहर की सिंचाई कितनी गहरी है शायद पता नहीं था। लेकिन चार सालों में काम तो किया है । और अगर resistant सिस्टम को देखें तो बहुत कुछ कर पाये हैं।
वैसे बहुत काम नहीं हुए उसके लिए मैं भी नाराज़ था । फिर सोचा कि किस हक़ से नाराज हूँ ? तब व्यवहारिक हिन्दुत्वका विचार आया । अगर आप ने पढ़ा न हो तो यह लिंक है https://goo.gl/1r11ru । अवश्य पढ़ें ।
बाकी एक बात आप ने भी देखी होगी। सब का टार्गेट मोदी जी ही हैं । अब मुख्यमंत्री बन जाने के बाद योगी जी भी । क्यों ? ये ही दो क्यों ? क्या बाकी कोई लोग ही नहीं है सरकार में ?
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या बाकी सब मैनेज होने की गैरंटी है काँग्रेस को ?
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TINA या विकल्पहीनता बहुत बुरी बात है लेकिन फिलहाल जो है सो है । 2019 में मोदी जी को सपोर्ट रहेगा क्योंकि तब तक विकल्प खड़ा नहीं हो पाएगा । और सबक सिखाने या घमंड तोड़ने को नोटा दबाना षडयंत्र है, यह समझ लीजिये । 2024 तक काम करना चाहिए, अपने सामूहिक भविष्य की चिंता करनी चाहिए । नहीं तो बाकी समूह बैठे ही हैं ।
It is a jungle out there and the wolves are hungry, waiting and salivating. Group together, be secure.
समाप्त । जय हिन्द । सहमत हैं तो किसी भी तरह आगे बढ़ाने की बिनती है ।
अगर इसका अर्थ नियम अनुसार काम है तो इसे हथियार क्यों माना जाता है और इससे लोग डरते क्यों हैं ?
इस छोटे से प्रश्न का उत्तर बहुत बड़ा है। केवल आकार में ही नहीं परिणामों में भी। बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हैं यह बात समझने में।
पहले समझते हैं यह वर्क टू रूल है क्या ? क्यों यूनियनवाले इन शब्दों को धमकी बनाकर प्रयोग करते हैं और क्यों मैनेजमेंट के इन शब्दों से तोते उड जाते हैं ? अगर नियमों के अनुसार काम होगा तो मैनेजमेंट को तो खुश होना चाहिए, काम सुचारु रूप से हो इसीके लिए तो नियम बने होते हैं ना ? फिर ?
सब से बड़ा छलावा यही है । जो नियम हैं उनके अनुसार ठीक से काम हो नहीं सकता । क्योंकि काम का स्वरूप बदल चुका होता है और नियम वही पुराने होते हैं जिन्हें काम में होते रहे बदलाव गया के साथ बदला नहीं गया । क्योंकि जहां भी ये वर्क टू रूल की बात होती है, वहाँ यूनियन होती ही है, जिसका मतलब यह भी होता है कि नियम सरकार के बनाए हुए हैं । अब वे नियम तो जनरल हैं याने सभी इंडस्ट्री पर लागू होते हैं या उस विशिष्ट इंडस्ट्री पर लागू होते हैं। और अगर यूनियन बनी है मतलब वहाँ वामपंथी हैं ही ।
निचोड़ यह है कि नियमों में समयानुसार बदलाव हुआ नहीं है क्योंकि सरकारी नियम बदलना आसान नहीं होता, नियमों में बदलाव होना एक बहुत धीमी प्रक्रिया होती है । इसलिए नियमों की आड़ लेकर मैनेजमेंट को घुटनों पर लाना यूनियन के लिए बहुत आसान होता है । एक बार हड़ताल से लड़ना गंवारा होता है, यह वर्क टु रूल झेलना कठिन होता है क्योंकि कहने को काम हो तो रहा है लेकिन सभी बे भरोसेका मामला होता है ।
जहां फ़ैक्टरी है वहाँ काम के लिए स्किल्ड वर्कर भी चाहिए, अनुभवी भी । रातोरात नए लोग नहीं आ सकते । जो हैं उनसे ही काम लेना पड़ता है । फ़ैक्टरी ही क्यों, बैंक हो या सरकारी दफ्तर, सभी जगह यही होता है । इसीलिए वर्क टु रूल नाक में दम कर देता है । किसी सरकारी कंपनी या बैंक वगैरा के HR वालों से पूछ लीजिएगा।
ब्यूरोक्रेसी अधिकारिक रूप से वर्क टू रूल नहीं करती, लेकिन ऐसे रूल सामने कर देती है कि मंत्रीमहोदयों की हालत खराब हो सकती है । क्या करना है यह सोचना मंत्रीमहोदय को होता है, ब्यूरोक्रेट तो सिस्टमो रक्षति रक्षित: होता है ।
जब कई लोगों को लिखते देखता हूँ कि पूरी कायनात साथ है फिर भी यह सरकार कुछ नहीं कर रही, तब कनफ्यूज हो जाता हूँ कि लिखनेवाले को ये सब पेंच पता नहीं होते या जानबूझकर पब्लिक को उकसाने के लिए लिखते हैं । क्या इनको Compliant System, Complicit System और Resistant System में क्या अंतर होते हैं, पता ही नहीं ?
एक बात बताईये, क्या आप compliant सिस्टम, complicit सिस्टम और resistant सिस्टम क्या होती है और इनका फर्क क्या होता है यह जानते हैं ?
तीन इंग्लिश शब्द हैं – जिनके हिन्दी अर्थ भी दे रहा हूँ । इन्हें समझते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं।
अगर हम पहले शब्द को लेते हैं तो मज़े की बात यह है कि complaint – कंपलेंट और इसमें सभी अक्षर समान हैं लेकिन दोनों का अर्थ लगभग धुर विरोधी है । अस्तु, आगे बढ़ते हैं ।
1 Compliant – कोम्प्लायंट – आज्ञाकारी, बात पर न अडनेवाला ।
2 Complicit – कोंपलिसीट – सहापराधी, बुरे काम में साझीदार ।
3 Resistant – रेजिस्टंट – अवरोध करनेवाला ।
लोकतान्त्रिक देशों में सरकारी सिस्टम की बात करें तो सिस्टम अगर सरकार के लिए compliant हो तो काम सुचारु रूप से चलेगा। यह आदर्श स्थिति है और बहुत सारे आदर्शों की तरह केवल किताबों में ही पायी जाती है । वास्तव में सिस्टम सरकार के लिए या तो complicit होती है या resistant ! अक्सर, सरकार और सिस्टम का तालमेल सरकार के हिसाब से नहीं बल्कि सिस्टम के हिसाब से होता है । Yes, Minister ! जिन्होने पढ़ी या देखी होगी उनको इसका अंदाज़ा होगा। बाकी सरकारी कर्मचारियों को यह सत्य अच्छी तरह पता होता है ।
जैसे पुरुष पति हो जाने पर पालतू बन जाता है वैसे ही कुछ नेता मंत्री होने के बाद सिस्टम के लिए compliant हो जाते हैं , जब कि लोगों में भ्रम होता है कि इसके विपरीत होता है । यह Yes Minister की थीम थी । बाकी जो है सो हईये ही है।
लंबी समय तक अपनी सरकार रहने के कारण काँग्रेस के लिए सिस्टम compliant बनी या complicit यह आप खुद समझ लीजिये, उतना तो आप को भी पता होगा ही । हाँ, इसमें कानूनपालिका का भी समावेश है ही, सिस्टम का वो भी एक महत्व का अंग है ।
कृपया अगर आप के पहचान में कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हों तो उनसे चर्चा कर लीजिये कि अगर सिस्टम अफसर के साथ खड़ा हो जाये तो अफसर पर कारवाई करने के लिए सरकार को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं । बहुत ही ज़िद की मंत्री जी ने तो तबादला होता है और धीरे से वापसी भी । किसी जज पर हाथ डालना तो नामुमकिन है । उनके कवच तो अभेद्य हैं ।
अशोक खेमका जैसे लोगों के ट्रांसफर्स किस तरह की सिस्टम करती होगी यह आप समझ जाइए । बाकी यही सिस्टम की एक विशेषता भी है कि वो ईमानदार अफसरों को चमकाती भी है । थोड़ी सी स्ट्रेटजिक पब्लिसिटी देगी ताकि लोगों को एहसास होता रहे कि नहीं, सिस्टम में अच्छे लोग भी हैं । लेकिन आप देखिये, ये जो लोग चमकते हैं उन्हें अक्सर चमकने ही दिया जाता है ताकि वे सिस्टम के मॉडेल्स हो सके, गुडविल एम्बासेडर्स बन सके । जहां सिस्टम को ईमानदार बनने पर मजबूर किया जा सके ऐसे ताकतवर पोजीशन्स पर ये लोग कभी नहीं आ पाएंगे ।
न खाऊँगा न खाने दूंगा कहनेवाले मोदी जी के लिए कॉंग्रेस से विरासत में मिलीं सिस्टम resistant ही होगी यह ध्रुव सत्य है और यही पग पग पर दिख भी रहा है । वैसे लगता है काँग्रेस काल में जिस तरह से सिस्टम का उपयोग किया जाता था और सिस्टम का भी साथ मिलता था उसी के कारण जनता में यह भावना है कि सरकार याने मंत्री जो चाहे कर सकते हैं और प्रधान मंत्री तो बस चुटकी बजाकर पूरे गांधी खानदान को बेड़ियों में बांध सकता है । और इसी भावना को काँग्रेसियों द्वारा ही हवा दी जा रही है कि अगर सरकार यह नहीं कर सकती तो वो काबिल नहीं है ।
दुर्भाग्य यह है कि अपने यहाँ जल्द बहकनेवालों की कमी नहीं है जो सिस्टम के पेंच नहीं समझते और आसानी से मान जाते हैं कि पहले होता रहता था, इनसे नहीं होता, ये काबिल नहीं हैं । “पाँच साल बहुत होते हैं” यह बहुत लोकप्रिय डायलॉग हुआ है लेकिन अक्सर इस डायलॉग को बोलनेवाला या तो सिस्टम की असलियत से अनजान होता है या फिर जान बूझकर बरगलानेवाला। और दोनों तुरंत इसे ईगो इशू बना देते हैं – “आप को क्या लगता है हमने दुनिया देखी नहीं, सब ज्ञान आप ही के पास है ?” ऐसे Cognitive Dissonance का कोई जवाब नहीं होता ।
पहले सिस्टम के साथ मिलीभगत होती थी और जो भी करप्शन आदि के केसेस बाहर आते थे, वे अक्सर उस संबन्धित व्यक्ति को उसकी औकात समझाने या उसके पर कतरने के लिए होते थे । उनके लिए आवश्यक सबूत सिस्टम ही मुहैया करती थी, अधिकारी अपनी पॉलिटिक्स मंत्रियों द्वारा कर लेते थे। सिस्टम से जो भी दो चार हुआ है, यह बात भली भांति जानता है, बोलता कोई नहीं इतनी ही बात है ।
कई लोग अब कहने लगे हैं कि मोदी जी को कठोरता दिखानी होगी । कठोरता याने क्या इसकी चर्चा करें तो बात इमर्जन्सी की करते हैं । इनमें अधिकतर लोगों की उम्र चालीस से बीस के बीच की होती है । उनके लिए इमर्जन्सी एक ऐतिहासिक घटना है जिसका उनपर कोई असर नहीं हुआ । मैंने खुद देखी है । उस समय कॉलेज में था और राजनीति की समझ थी । किस तरह लोग सहमे हुए थे यह स्वयं देखा है । किस तरह सरकारी अफसरों ने अधिकारों का दुरुपयोग किया यह भी देखा सुना है ।
कोई सुनवाई नहीं हुआ करती थी । लोग तो शिकायत करने से भी डरते थे ।
लेकिन क्या ये सब कुकृत्य इन्दिरा गांधी ने किये थे ? काँग्रेस ने किये थे ? नहीं ना ? अधिकतर तो अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों ने ही किये थे।
फिर भी, बिल उनके नाम का ही फाड़ा गया ना ? इमर्जन्सी जब लगाई जाती है तो एक दिन उसका उठाया जाना भी तय है । और एक बात जान लीजिये, इमर्जन्सी में सरकारी अफसरों द्वारा किये अत्याचार और अनाचारों की कोई तात्कालिक सुनवाई नहीं होती । शायद बाद में भी नहीं होगी । बंसीलाल के बारे में बहुत कुछ सुना, जो सुना उसके लिए उनको कोई सजा नहीं हुई । विद्याचरण शुक्ल का नाम भी काफी चर्चित था, उनको भी कुछ नहीं हुआ । जाने दीजिये, आज किसी के नाम उछालकर कुछ हासिल नहीं होना है ।
लेकिन आज आप को कई सारे लोग मिलेंगे जो कहते हैं कि वो समय बहुत अच्छा था, क्योंकि ट्रेनें समय पर आती थी, कोई हड़ताल नहीं होते थे और पुलिस से गुंडे डरते थे । किन्तु इससे अधिक कहने को उनके पास कुछ नहीं होता ।
आप जरा खोद कर पूछेंगे तो एक ही जवाब मिलता है – हाँ, जो लोग पॉलिटिक्स में थे, विपक्ष में थे उनको तकलीफ हुई ऐसा सुना था । बाकी जबरन फॅमिली प्लानिंग के किस्से भी सुने थे, लेकिन क्या पता सच थे या झूठ । बाकी हम तो हमारी ज़िंदगी जी रहे थे भाई, हमें पॉलिटिक्स से क्या लेना देना हम तो वोट डालने भी नहीं जाते । वैसे भी हमारे वोट से क्या फर्क पड़ता है ? पूरा बूथ कैप्चर आदि तो होता ही है तो हम क्यों न अपनी ज़िंदगी शांति से जिये ?
ठीक ऐसी ही बातें मेरी नानी और उसके उम्र के कई लोग कहा करते थे ब्रिटिश हुकूमत को लेकर । तब तो कोई पॉलिटिक्स भी नहीं था और ना कोई वोट ।
तो फिर क्यूँ खामखां ही अंग्रेजों से लड़कर स्वतंत्र हुए हम, नहीं ?
अस्तु । अगर इमर्जन्सी दुबारा आए तो गैरंटी है कि मोदी से नाराज सरकरी अधिकारी जनता पर कहर बरपाएंगे । सोशल मीडिया तो banned होगा ही, ईमेल आदि पर भी पाबंदी आएगी । कहाँ कहाँ किसको किसको क्या चेकिंग के नाम पर क्या तकलीफ दी जायेगी आप ही सोच लीजिये । इमर्जन्सी के समय तो केवल मुख्य मीडिया वह भी पेपर ही, कंट्रोल करने थे, आज बहुत कुछ कंट्रोल करना होगा। हो तो जाएगा, लेकिन यह सब सरकारी कारिंदों को आप को सताने के मौके देगा ।
राजस्थान, मध्य प्रदेश में तो काँग्रेस सरकार आई है उसका दबाव महसूस हो ही रहा है।
और इस सब से पैदा हुई नाराजगी और नुकसान का बिल ……….. ?
सही जवाब ! मोदी जी के नाम ही फाड़ा जाएगा !
कम्प्यूटर्स, कंझुमरिज़्म और इलेक्ट्रॉनिक्स ने एक चीज कर दी है जिसका कोई RESET नहीं । सब का पेशन्स खत्म कर दिया है । कुछ लोग तो इसे गौरव की बात भी मानते हैं, खास कर वे लोग जो प्राइवेट सैक्टर में अच्छे पोजिशन पर होते हैं । I don’t have much patience यह वाक्य काफी प्रचलित है, अनुभवित भी है । कभी स्ट्रैस के कारण जिन व्यसनों की ये शिकार होते हैं उससे कैंसर अक्सर होता है । उससे लड़ाई पैसों के साथ पेशन्स भी मांगती है लेकिन यह सीख too costly, too late होती है ।
गुजरात में लंबी पारी खेली मोदी जी ने, वहाँ सिस्टम को लगभग compliant बना दिया था। शायद सोचा होगा, राज्य ठीक से चलाया तो देश भी चला सकेंगे।
नहर के जहर की सिंचाई कितनी गहरी है शायद पता नहीं था। लेकिन चार सालों में काम तो किया है । और अगर resistant सिस्टम को देखें तो बहुत कुछ कर पाये हैं।
वैसे बहुत काम नहीं हुए उसके लिए मैं भी नाराज़ था । फिर सोचा कि किस हक़ से नाराज हूँ ? तब व्यवहारिक हिन्दुत्वका विचार आया । अगर आप ने पढ़ा न हो तो यह लिंक है https://goo.gl/1r11ru । अवश्य पढ़ें ।
बाकी एक बात आप ने भी देखी होगी। सब का टार्गेट मोदी जी ही हैं । अब मुख्यमंत्री बन जाने के बाद योगी जी भी । क्यों ? ये ही दो क्यों ? क्या बाकी कोई लोग ही नहीं है सरकार में ?
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या बाकी सब मैनेज होने की गैरंटी है काँग्रेस को ?
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TINA या विकल्पहीनता बहुत बुरी बात है लेकिन फिलहाल जो है सो है । 2019 में मोदी जी को सपोर्ट रहेगा क्योंकि तब तक विकल्प खड़ा नहीं हो पाएगा । और सबक सिखाने या घमंड तोड़ने को नोटा दबाना षडयंत्र है, यह समझ लीजिये । 2024 तक काम करना चाहिए, अपने सामूहिक भविष्य की चिंता करनी चाहिए । नहीं तो बाकी समूह बैठे ही हैं ।
It is a jungle out there and the wolves are hungry, waiting and salivating. Group together, be secure.
समाप्त । जय हिन्द । सहमत हैं तो किसी भी तरह आगे बढ़ाने की बिनती है ।