Friday, April 19, 2019

शक्तिमान कौन, सरकार या सिस्टम ?

वर्क टू रूल का अर्थ आप के लिए क्या है ?

अगर इसका अर्थ नियम अनुसार काम है तो इसे हथियार क्यों माना जाता है और इससे लोग डरते क्यों हैं ?

इस छोटे से प्रश्न का उत्तर बहुत बड़ा है। केवल आकार में ही नहीं परिणामों में भी। बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हैं यह बात समझने में।

पहले समझते हैं यह वर्क टू रूल है क्या ? क्यों यूनियनवाले इन शब्दों को धमकी बनाकर प्रयोग करते हैं और क्यों मैनेजमेंट के इन शब्दों से तोते उड जाते हैं ? अगर नियमों के अनुसार काम होगा तो मैनेजमेंट को तो खुश होना चाहिए, काम सुचारु रूप से हो इसीके लिए तो नियम बने होते हैं ना ? फिर ?

सब से बड़ा छलावा यही है । जो नियम हैं उनके अनुसार ठीक से काम हो नहीं सकता । क्योंकि काम का स्वरूप बदल चुका होता है और नियम वही पुराने होते हैं जिन्हें काम में होते रहे बदलाव गया के साथ बदला नहीं गया । क्योंकि जहां भी ये वर्क टू रूल की बात होती है, वहाँ यूनियन होती ही है, जिसका मतलब यह भी होता है कि नियम सरकार के बनाए हुए हैं । अब वे नियम तो जनरल हैं याने सभी इंडस्ट्री पर लागू होते हैं या उस विशिष्ट इंडस्ट्री पर लागू होते हैं। और अगर यूनियन बनी है मतलब वहाँ वामपंथी हैं ही ।

निचोड़ यह है कि नियमों में समयानुसार बदलाव हुआ नहीं है क्योंकि सरकारी नियम बदलना आसान नहीं होता, नियमों में बदलाव होना एक बहुत धीमी प्रक्रिया होती है । इसलिए नियमों की आड़ लेकर मैनेजमेंट को घुटनों पर लाना यूनियन के लिए बहुत आसान होता है । एक बार हड़ताल से लड़ना गंवारा होता है, यह वर्क टु रूल झेलना कठिन होता है क्योंकि कहने को काम हो तो रहा है लेकिन सभी बे भरोसेका मामला होता है ।

जहां फ़ैक्टरी है वहाँ काम के लिए स्किल्ड वर्कर भी चाहिए, अनुभवी भी । रातोरात नए लोग नहीं आ सकते । जो हैं उनसे ही काम लेना पड़ता है । फ़ैक्टरी ही क्यों, बैंक हो या सरकारी दफ्तर, सभी जगह यही होता है । इसीलिए वर्क टु रूल नाक में दम कर देता है । किसी सरकारी कंपनी या बैंक वगैरा के HR वालों से पूछ लीजिएगा।

ब्यूरोक्रेसी अधिकारिक रूप से वर्क टू रूल नहीं करती, लेकिन ऐसे रूल सामने कर देती है कि मंत्रीमहोदयों की हालत खराब हो सकती है । क्या करना है यह सोचना मंत्रीमहोदय को होता है, ब्यूरोक्रेट तो सिस्टमो रक्षति रक्षित: होता है ।

जब कई लोगों को लिखते देखता हूँ कि पूरी कायनात साथ है फिर भी यह सरकार कुछ नहीं कर रही, तब कनफ्यूज हो जाता हूँ कि लिखनेवाले को ये सब पेंच पता नहीं होते या जानबूझकर पब्लिक को उकसाने के लिए लिखते हैं । क्या इनको Compliant System, Complicit System और Resistant System में क्या अंतर होते हैं, पता ही नहीं ?

एक बात बताईये, क्या आप compliant सिस्टम, complicit सिस्टम और resistant सिस्टम क्या होती है और इनका फर्क क्या होता है यह जानते हैं ?

तीन इंग्लिश शब्द हैं – जिनके हिन्दी अर्थ भी दे रहा हूँ । इन्हें समझते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं।

अगर हम पहले शब्द को लेते हैं तो मज़े की बात यह है कि complaint – कंपलेंट और इसमें सभी अक्षर समान हैं लेकिन दोनों का अर्थ लगभग धुर विरोधी है । अस्तु, आगे बढ़ते हैं ।

1 Compliant – कोम्प्लायंट – आज्ञाकारी, बात पर न अडनेवाला ।
2 Complicit – कोंपलिसीट – सहापराधी, बुरे काम में साझीदार ।
3 Resistant – रेजिस्टंट – अवरोध करनेवाला ।

लोकतान्त्रिक देशों में सरकारी सिस्टम की बात करें तो सिस्टम अगर सरकार के लिए compliant हो तो काम सुचारु रूप से चलेगा। यह आदर्श स्थिति है और बहुत सारे आदर्शों की तरह केवल किताबों में ही पायी जाती है । वास्तव में सिस्टम सरकार के लिए या तो complicit होती है या resistant ! अक्सर, सरकार और सिस्टम का तालमेल सरकार के हिसाब से नहीं बल्कि सिस्टम के हिसाब से होता है । Yes, Minister ! जिन्होने पढ़ी या देखी होगी उनको इसका अंदाज़ा होगा। बाकी सरकारी कर्मचारियों को यह सत्य अच्छी तरह पता होता है ।

जैसे पुरुष पति हो जाने पर पालतू बन जाता है वैसे ही कुछ नेता मंत्री होने के बाद सिस्टम के लिए compliant हो जाते हैं , जब कि लोगों में भ्रम होता है कि इसके विपरीत होता है । यह Yes Minister की थीम थी । बाकी जो है सो हईये ही है।

लंबी समय तक अपनी सरकार रहने के कारण काँग्रेस के लिए सिस्टम compliant बनी या complicit यह आप खुद समझ लीजिये, उतना तो आप को भी पता होगा ही । हाँ, इसमें कानूनपालिका का भी समावेश है ही, सिस्टम का वो भी एक महत्व का अंग है ।

कृपया अगर आप के पहचान में कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हों तो उनसे चर्चा कर लीजिये कि अगर सिस्टम अफसर के साथ खड़ा हो जाये तो अफसर पर कारवाई करने के लिए सरकार को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं । बहुत ही ज़िद की मंत्री जी ने तो तबादला होता है और धीरे से वापसी भी । किसी जज पर हाथ डालना तो नामुमकिन है । उनके कवच तो अभेद्य हैं ।

अशोक खेमका जैसे लोगों के ट्रांसफर्स किस तरह की सिस्टम करती होगी यह आप समझ जाइए । बाकी यही सिस्टम की एक विशेषता भी है कि वो ईमानदार अफसरों को चमकाती भी है । थोड़ी सी स्ट्रेटजिक पब्लिसिटी देगी ताकि लोगों को एहसास होता रहे कि नहीं, सिस्टम में अच्छे लोग भी हैं । लेकिन आप देखिये, ये जो लोग चमकते हैं उन्हें अक्सर चमकने ही दिया जाता है ताकि वे सिस्टम के मॉडेल्स हो सके, गुडविल एम्बासेडर्स बन सके । जहां सिस्टम को ईमानदार बनने पर मजबूर किया जा सके ऐसे ताकतवर पोजीशन्स पर ये लोग कभी नहीं आ पाएंगे ।

न खाऊँगा न खाने दूंगा कहनेवाले मोदी जी के लिए कॉंग्रेस से विरासत में मिलीं सिस्टम resistant ही होगी यह ध्रुव सत्य है और यही पग पग पर दिख भी रहा है । वैसे लगता है काँग्रेस काल में जिस तरह से सिस्टम का उपयोग किया जाता था और सिस्टम का भी साथ मिलता था उसी के कारण जनता में यह भावना है कि सरकार याने मंत्री जो चाहे कर सकते हैं और प्रधान मंत्री तो बस चुटकी बजाकर पूरे गांधी खानदान को बेड़ियों में बांध सकता है । और इसी भावना को काँग्रेसियों द्वारा ही हवा दी जा रही है कि अगर सरकार यह नहीं कर सकती तो वो काबिल नहीं है ।

दुर्भाग्य यह है कि अपने यहाँ जल्द बहकनेवालों की कमी नहीं है जो सिस्टम के पेंच नहीं समझते और आसानी से मान जाते हैं कि पहले होता रहता था, इनसे नहीं होता, ये काबिल नहीं हैं । “पाँच साल बहुत होते हैं” यह बहुत लोकप्रिय डायलॉग हुआ है लेकिन अक्सर इस डायलॉग को बोलनेवाला या तो सिस्टम की असलियत से अनजान होता है या फिर जान बूझकर बरगलानेवाला। और दोनों तुरंत इसे ईगो इशू बना देते हैं – “आप को क्या लगता है हमने दुनिया देखी नहीं, सब ज्ञान आप ही के पास है ?” ऐसे Cognitive Dissonance का कोई जवाब नहीं होता ।

पहले सिस्टम के साथ मिलीभगत होती थी और जो भी करप्शन आदि के केसेस बाहर आते थे, वे अक्सर उस संबन्धित व्यक्ति को उसकी औकात समझाने या उसके पर कतरने के लिए होते थे । उनके लिए आवश्यक सबूत सिस्टम ही मुहैया करती थी, अधिकारी अपनी पॉलिटिक्स मंत्रियों द्वारा कर लेते थे। सिस्टम से जो भी दो चार हुआ है, यह बात भली भांति जानता है, बोलता कोई नहीं इतनी ही बात है ।

कई लोग अब कहने लगे हैं कि मोदी जी को कठोरता दिखानी होगी । कठोरता याने क्या इसकी चर्चा करें तो बात इमर्जन्सी की करते हैं । इनमें अधिकतर लोगों की उम्र चालीस से बीस के बीच की होती है । उनके लिए इमर्जन्सी एक ऐतिहासिक घटना है जिसका उनपर कोई असर नहीं हुआ । मैंने खुद देखी है । उस समय कॉलेज में था और राजनीति की समझ थी । किस तरह लोग सहमे हुए थे यह स्वयं देखा है । किस तरह सरकारी अफसरों ने अधिकारों का दुरुपयोग किया यह भी देखा सुना है ।

कोई सुनवाई नहीं हुआ करती थी । लोग तो शिकायत करने से भी डरते थे ।
लेकिन क्या ये सब कुकृत्य इन्दिरा गांधी ने किये थे ? काँग्रेस ने किये थे ? नहीं ना ? अधिकतर तो अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों ने ही किये थे।

फिर भी, बिल उनके नाम का ही फाड़ा गया ना ? इमर्जन्सी जब लगाई जाती है तो एक दिन उसका उठाया जाना भी तय है । और एक बात जान लीजिये, इमर्जन्सी में सरकारी अफसरों द्वारा किये अत्याचार और अनाचारों की कोई तात्कालिक सुनवाई नहीं होती । शायद बाद में भी नहीं होगी । बंसीलाल के बारे में बहुत कुछ सुना, जो सुना उसके लिए उनको कोई सजा नहीं हुई । विद्याचरण शुक्ल का नाम भी काफी चर्चित था, उनको भी कुछ नहीं हुआ । जाने दीजिये, आज किसी के नाम उछालकर कुछ हासिल नहीं होना है ।

लेकिन आज आप को कई सारे लोग मिलेंगे जो कहते हैं कि वो समय बहुत अच्छा था, क्योंकि ट्रेनें समय पर आती थी, कोई हड़ताल नहीं होते थे और पुलिस से गुंडे डरते थे । किन्तु इससे अधिक कहने को उनके पास कुछ नहीं होता ।

आप जरा खोद कर पूछेंगे तो एक ही जवाब मिलता है – हाँ, जो लोग पॉलिटिक्स में थे, विपक्ष में थे उनको तकलीफ हुई ऐसा सुना था । बाकी जबरन फॅमिली प्लानिंग के किस्से भी सुने थे, लेकिन क्या पता सच थे या झूठ । बाकी हम तो हमारी ज़िंदगी जी रहे थे भाई, हमें पॉलिटिक्स से क्या लेना देना हम तो वोट डालने भी नहीं जाते । वैसे भी हमारे वोट से क्या फर्क पड़ता है ? पूरा बूथ कैप्चर आदि तो होता ही है तो हम क्यों न अपनी ज़िंदगी शांति से जिये ?

ठीक ऐसी ही बातें मेरी नानी और उसके उम्र के कई लोग कहा करते थे ब्रिटिश हुकूमत को लेकर । तब तो कोई पॉलिटिक्स भी नहीं था और ना कोई वोट ।

तो फिर क्यूँ खामखां ही अंग्रेजों से लड़कर स्वतंत्र हुए हम, नहीं ?

अस्तु । अगर इमर्जन्सी दुबारा आए तो गैरंटी है कि मोदी से नाराज सरकरी अधिकारी जनता पर कहर बरपाएंगे । सोशल मीडिया तो banned होगा ही, ईमेल आदि पर भी पाबंदी आएगी । कहाँ कहाँ किसको किसको क्या चेकिंग के नाम पर क्या तकलीफ दी जायेगी आप ही सोच लीजिये । इमर्जन्सी के समय तो केवल मुख्य मीडिया वह भी पेपर ही, कंट्रोल करने थे, आज बहुत कुछ कंट्रोल करना होगा। हो तो जाएगा, लेकिन यह सब सरकारी कारिंदों को आप को सताने के मौके देगा ।

राजस्थान, मध्य प्रदेश में तो काँग्रेस सरकार आई है उसका दबाव महसूस हो ही रहा है।

और इस सब से पैदा हुई नाराजगी और नुकसान का बिल ……….. ?


सही जवाब ! मोदी जी के नाम ही फाड़ा जाएगा !

कम्प्यूटर्स, कंझुमरिज़्म और इलेक्ट्रॉनिक्स ने एक चीज कर दी है जिसका कोई RESET नहीं । सब का पेशन्स खत्म कर दिया है । कुछ लोग तो इसे गौरव की बात भी मानते हैं, खास कर वे लोग जो प्राइवेट सैक्टर में अच्छे पोजिशन पर होते हैं । I don’t have much patience यह वाक्य काफी प्रचलित है, अनुभवित भी है । कभी स्ट्रैस के कारण जिन व्यसनों की ये शिकार होते हैं उससे कैंसर अक्सर होता है । उससे लड़ाई पैसों के साथ पेशन्स भी मांगती है लेकिन यह सीख too costly, too late होती है ।

गुजरात में लंबी पारी खेली मोदी जी ने, वहाँ सिस्टम को लगभग compliant बना दिया था। शायद सोचा होगा, राज्य ठीक से चलाया तो देश भी चला सकेंगे।

नहर के जहर की सिंचाई कितनी गहरी है शायद पता नहीं था। लेकिन चार सालों में काम तो किया है । और अगर resistant सिस्टम को देखें तो बहुत कुछ कर पाये हैं।

वैसे बहुत काम नहीं हुए उसके लिए मैं भी नाराज़ था । फिर सोचा कि किस हक़ से नाराज हूँ ? तब व्यवहारिक हिन्दुत्वका विचार आया । अगर आप ने पढ़ा न हो तो यह लिंक है https://goo.gl/1r11ru । अवश्य पढ़ें ।

बाकी एक बात आप ने भी देखी होगी। सब का टार्गेट मोदी जी ही हैं । अब मुख्यमंत्री बन जाने के बाद योगी जी भी । क्यों ? ये ही दो क्यों ? क्या बाकी कोई लोग ही नहीं है सरकार में ?
===============================
या बाकी सब मैनेज होने की गैरंटी है काँग्रेस को ?
===============================
TINA या विकल्पहीनता बहुत बुरी बात है लेकिन फिलहाल जो है सो है । 2019 में मोदी जी को सपोर्ट रहेगा क्योंकि तब तक विकल्प खड़ा नहीं हो पाएगा । और सबक सिखाने या घमंड तोड़ने को नोटा दबाना षडयंत्र है, यह समझ लीजिये । 2024 तक काम करना चाहिए, अपने सामूहिक भविष्य की चिंता करनी चाहिए । नहीं तो बाकी समूह बैठे ही हैं ।

It is a jungle out there and the wolves are hungry, waiting and salivating. Group together, be secure.

समाप्त । जय हिन्द । सहमत हैं तो किसी भी तरह आगे बढ़ाने की बिनती है ।

Thursday, February 21, 2019

क्यों महत्व का है कश्मीर

कल मैंने जो मेरे मित्र Saptarshi Basu जी के फेसबुक के इंग्लिश लेख का अनुवाद किया था उसमें एक मुद्दा था जिसे लेकर यह पोस्ट विशेष रूप से अलग से लिख रहा हूँ । आप से अनुरोध है कि इसे सेव अवश्य कर लें। शेयर या कॉपी पेस्ट करना आप की इच्छा।

उत्तर भारत के वॉटर टेबल पर नियंत्रण

सर्वप्रथम तो पाकिस्तान अपना पानी की सप्लाई सुरक्षित कर लेगा । आज भारत सरकार जो पानी की आपूर्ति का अहिंसक शस्त्र के रूप में उपयोग कर रही है इसलिए आज देश को पता चल रहा है कि ये हथियार हमारे पास पहले से उपलब्ध था, हिन्दू मानसिकता के चलते हम इसका उपयोग करने से कतराते रहे। हुसेन का तड़पना हमें भी पीड़ा अनुभव कराता है लेकिन ये हम भूलते हैं कि उसे तडपा तड़पा कर मारनेवाले भी तो मुसलमान ही थे । शायद मुहम्मद के नाती थे इसलिए हुसेन की मौत event बन गई इतना ही है ।

आगे देखते हैं ।

हिमालय से जिनको पानी मिलता है वे नदियों पर पाकिस्तानी नियंत्रण होगा। चीन को लालच देकर वे बांध बांधकर भारतीयों का जीना दूभर कर सकते हैं, और भी कई सारे हथकंडे अपना सकते हैं । यह याद रखें कि घेरा डालकर भूखे मारनेवाला युद्ध भारत में इस्लाम ही लाया है। हिंदुओं के युद्ध बस्तियों से अलग होते थे ताकि नागरिकों को तथा कृषि को हानी न हों। स्त्रियों के साथ अत्याचार नहीं, बच्चों बूढ़ों को यतनाएँ नहीं और कोई गुलाम बनाकर बेचना नहीं । खेत जलाना, घेरा डालकर भूखे मारना, नागरी बस्तियों पर हमले, स्त्रियों पर अत्याचार, उनको भोगदासी बनाकर बेचना, बच्चों पर अत्याचार, पुरुष हो रहे हर बच्चे को भी काट देना ये सभी की पहचान इस्लाम ने ही भारत को कराई है । और ये सभी कल्पनाएँ नहीं लेकिन उनके ही लोगों ने गर्व से गाथाएँ लिखी हैं ।

और भारत के मुसलमान टीवी के कैमरा पर गर्व से कहते हैं कि वे हमारे हीरो हैं ।

वैसे आज भी भारत इंडस वॉटर ट्रीटी का उल्लंघन नहीं कर रहा है बस अपने हिस्से का पानी ही पूरा उपयोग करने की बात कर रहा है जिसमें से अधिकतर पाकिस्तान जाता रहा है क्योंकि अपने यहाँ उसे अन्यत्र उपयोग करने के लिए जो इनफ्रास्ट्रक्चर चाहिए वह नहीं था । लेकिन पाकिस्तान अगर कश्मीर कब्जाता है तो क्या पाकिस्तान उस ट्रीटी को मानेगा ? कब्जे में आई चीज को लेकर मुसलमान, कानून को कितना मानते हैं, क्या आप को अलग से बताना होगा ?

अस्तु, विषयांतर हुआ। कश्मीर पर नियंत्रण पाकिस्तानी सेना को मिलिटरी हाय ग्राउंड देगी जहां से सपाट मैदानी इलाकों पर हमले करना आसान होगा। और पानी जीवन होता है, उसपर उनका नियंत्रण हो जाये तो क्या हो सकता है इसपर सोचिए, अगली बार कश्मीर की आज़ादी की बात उठानेवाले को चार सवाल करने के लिए आप खुद सक्षम हो जाएँगे । वे ये बात कभी नहीं करते कि कश्मीर जाने से क्या नुकसान है समूचे भारत को । हिन्दू हैं तो शायद जानते नहीं और मुसलमान हैं तो उनके लिए वे गजवा ए हिन्द को मदद कर के अपने लिए जन्नत का रिज़र्वेशन करा रहे हैं ।

इसीलिए पाकिस्तान ने अशांत रखा है कश्मीर

सबसे पहले इस बात को जानना होगा कि पर्यटन व्यवसाय एक अत्यंत भंगुर व्यवसाय है। (बर्ड फ्लू और SARS के समय चाइना का क्या नुकसान हुआ और चाइना ने कैसे खबरें दबाई थी, कभी जान लीजिये। ये खबरें और अफवाहें चलाना भी Art Of War के पहले ही चैप्टर में एक उपयुक्त रणनीति गिनाई गयी है । अस्तु, आप के यहाँ किसी भी तरह का खतरा है तो पर्यटक आना बंद कर देंगे । खतरे की अफवाहें भी पर्यटन को अनगिनत नुकसान करा सकती हैं और यहाँ तो पाकिस्तान ने इतने नियमित हादसे करवाएँ जिनकी खबरें रोजाना की हेडलाइंस तब तक बनती रही जब तक दुनिया के मन में यह पूरी तरह अंकित हो गया कि कश्मीर जाना मौत को बुलाना है । कोई दूसरे से कहता - ये पढ़ा कश्मीर के बारे में ? तो दूसरा उदासीनता से प्रतिप्रश्न करता - क्या हुआ, आज कितने मारे गए ?

कश्मीर को भारत से जोड़े रखने की कीमत थी जो सरकारों ने कुछ ज्यादह ही चुकाई। और हर काम करने की कीमत समय के साथ बढ़ती जाती है, कई काम अपनी जिंदगी में भी होते हैं जो सही समय पर न करने से बाद में असाध्य हो जाते हैं । गंभीर बीमारियों के साथ ये कहानी आम है, पहले इगनोर की गयी बीमारी बाद में जानलेवा होती है । इन्दिरा जी अपने समय में ही कर देती या राजीव जी भी कठोर उपाय कर देते तो आज जितना मुश्किल नहीं होता। मीडिया उनके साथ था। या फिर ये बात मीडिया के साथ साथ गांधी परिवार की देशनिष्ठा पर भी संदेह उठाती है । वैसे भी वे  कोई बलिदान नहीं हुए, बल्कि अपने ही स्वार्थ के लिए बनाए दैत्यों से निपटाए गए।

कश्मीर में बेरोजगारी फैली क्योंकि सरकार की रोजगार देने की क्षमता सीमित होती है । किसी भी स्टेट में जो _IDC होती है उसका काम ही होता है कि उद्योगों को बुलाएँ, आकर्षक सुविधाएं मुहैया करें ताकि उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए छोटी छोटी इकाइयां खड़ी हों जिनसे स्थानिकों को रोजगार मिले। और ये पैटर्न कोई भारत का ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी होता है।

लेकिन कश्मीर के किसी भी सरकार ने कश्मीर में यह स्थिति आने नहीं दी। क्या अब्दुल्ला पिता पुत्रों को यह समस्या समाधान समझ में नहीं आता था ? वे ही क्यों, जितने भी मुसलमान मुख्यमंत्री हुए, क्या किसी को यह समस्या का समाधान समझ में नहीं आता था ? गुलाम नबी आज़ाद तो केन्द्रीय मंत्री भी रहे हैं, क्या उनको यह समझ नहीं थी ? और जान लीजिये, ये सभी लोग बहुत इंटेलिजंट हैं, कोई बुद्धू नहीं । तो फिर इस समस्या को समस्या बनाए क्यों रखा यह सवाल तो उठता ही है ।

वैसे गुलाम नबी आज़ाद के बेटे का नाम सद्दाम है, संजोग काफी रोचक लगा।

सरकार की रोजगार देने की सीमाएं, कानून के कारण उद्योगों का न आ पाना, पर्यटन समाप्त होने से डूबते स्वरोजगार और शिक्षा का अभाव । असंतोष और अशांति का बारूद ठसाठस भरा हुआ था जिसमें पाकिस्तान ने इस्लाम की बत्ती लगा दी। और ये बम मधुमक्खी के छत्ते जैसा है, अनगिनत कंपार्टमेंट्स हैं, कहीं कोई तो कहीं कोई और, निरंतर विस्फोट होते रहते हैं - जैसे पत्थरबाजियाँ, कहीं बम, काही आत्मघाती फिदायीन हमले।
अगर कश्मीर के नेता वहाँ रोजगार उत्पन्न करने के लिए उद्योग बुलाते तो शांति रह सकती थी क्योंकि आदमी अपनी रोटी बचाने के लिए लड़ता है । लेकिन सभी ने अपनी रियासत बचाने की सियासत की जिसमें अब्दुल्ला खानदान का हिस्सा सब से बड़ा है - फारुख साहब की गुस्से की ड्रामेबाजी या ओमर का विक्टिम विक्टिम खेलना इसको छुपा नहीं सकती।

अब इतने साल हो गए जिससे वहाँ के महिलाओं में भी कट्टरपन भर गया है, माताएँ कह रही हैं कि बेटा बिना शहीद हुए लौट आए तो खुद ही उसका गला दबा दूँगी । सामान्यत: कोई माँ ये नहीं कहेगी, और दीन के लिए कुर्बान होने को बरगलाना ही कहेगी - जो आज फिलिस्तीन की महिलाएं उनके नेताओं से कह रही हैं - लेकिन आज इतने साल की सड़न ने माताओं की सोच को भी संक्रमित कर लिया है । स्वयं महिलाएं होकर भी हिन्दू महिलाओं पर हुए अत्याचारों के लिए उन्हे अपने घर के पुरुषों पर कोई शर्मिंदगी नहीं है ।

आज इसलिए कश्मीर को लेकर चीनीयों का ऊईगुर स्टाइल का इलाज जायज लगता है ।

अस्तु, कश्मीर में अशांतता में पाकिस्तानी निवेश क्यों ?

पाकिस्तान चाहता है कि कश्मीर में अशांतता, लगातार सैनिकों की मौतें और कश्मीरियों पर होनेवाले बेहिसाब खर्चे से भारत में यह वातावरण बने कि क्यों पकड़े रखे हो कश्मीर को, जाने दो पाकिस्तान में ! यहाँ प्रदूषण जैसे लोग कश्मीर की आज़ादी के वकील बने घूम रहे हैं। वामी भी विद्यालयों में कश्मीरियों के हिन्दू आक्रमण से संघर्ष का उदात्तीकरण करने लगे हैं । कुल मिलकर यह जनमत बनाना है कि भारत कश्मीर को छोड़ने पर मजबूर हो जाये।

इसीलिए यह समझने का प्रपंच किया है कि यह भूल कितनी और महंगी पड़ेगी। वैसे भी लंबे समय से चलती आ रही बीमारी का इलाज भी लंबा ही चलता है, यहाँ surgery नहीं हो सकती, वही तो पाकिस्तान और उसके backers चाहते हैं ।


और हाँ, तारेक फतह ने सही कहा था कि पाकिस्तान इज अ स्टेट ऑफ माइंड। समस्या इस माइंड को चलानेवाले प्रोग्राम - सॉफ्टवेयर से है, और उस सॉफ्टवेयर का नाम या उसके लेखक का नाम लेना फतह हमेशा टाल ही नहीं जाते, बल्कि उसका बचाव भी करते हैं । उनकी अपनी मजबूरीयां होंगी।

Friday, January 11, 2019

धर्मान्तर, राष्ट्रान्तर ही होता है - कैसे, देखिये

..बात निकली है, बहोत दूर तलक जाएगी ही ...
.-----------------------------------------------------------------------------
तुम्हारा शिवाजी यह किला कभी भी जीत नहीं पाया” – गोल टोपी पहना हुआ बारह – पंद्रह साल का एक मुस्लिम लड़का उस आदमी को बड़े रुबाब से सुना रहा था और वो आदमी निर्विकार भाव से सुन रहा था.
.
मुरुड का जंजीरा किला देखने जाओ तो यह अनुभव आता है. स्थानिक लडके ‘गाइड’ बनने की जिद करते हैं. बहुत से लोग उन्हें झिड़क देते हैं, लेकिन कोई होते हैं जो उनका गाइडेंस ले लेते हैं. तब बड़े अभिमान से यह लडके उन्हें यह जुमला सुनाते हैं.
.
वहीँ किलेपर घूमते घूमते मुझे इस लडके के शब्द सुनाई दिए तो मैं अपने को रोक नहीं पाया. उसके ग्राहक के पास गया और कहा, “ये सच कह रहा है. लेकिन शिवाजी तो असंख्य किलों के अधिपति रहे, और ये सिद्दी कौन था तो एक किले के बल से पूरे कोंकण को परेशान करनेवाला एक समुद्री चूहा !”
.
मेरे इस वाक्य का उस मनुष्य पर कुछ भी परिणाम नहीं हुआ, उसका चेहरा पहले जैसा ही निर्विकार था, पर वो लड़का - भड़का ! मेरी गोली सही जगह लगी थी.
.
“धर्मान्तर, राष्ट्रान्तर ही होता है !” यह वीर सावरकर जी के सिद्धांत का झन्नाटेदार प्रत्यय ऐसे छोटे छोटे प्रसंगों से भी आता है.
.
यह एक मराठी लेख के प्रथम तीन परिछेदों का अनुवाद था.
================================================
.
फेसबुक पर कहीं पढ़ी एक छोटी सी पोस्ट थी " क्या किसी धर्म को उनके बदल जाने से खतरा हो सकता है, जो राशन कार्ड और एक टुकड़ा जमीन के लिए 'हिन्दू' 'मुसलमान' और 'इसाई' बनते रहते हैं ?" 
.
दिखने में यह छोटी सी पोस्ट मेरे लिए विश्लेषण का विषय क्यों बनती है ? 
बात निकली है, बड़ी दूर तलक जाती है...
.
Jews जिन्हें यहूदी भी कह जाता है, खुद को हमेशा “ नेशन ऑफ़ इजराइल “ कहते हैं. जब वे मिस्र में गुलाम थे, तब भी. वैसे खुद को वे १२ कबीले मानते हैं (12 Tribes) . इनके धर्मग्रंथ के अनुसार अब्राहम को ईश्वर ने वरदान दिया कि तुम्हारा वंश एक महान राष्ट्र होगा. यहूदियों के मुताबिक़ ईश्वर ने यह आश्वासन उसके बेटे Isaac के वंशजों के बारे में दिया था. अब्राहम को और भी एक पुत्र था जिसका नाम था Ishmael . उसके वंशजों के विषय में भी यही बात है. अरब खुद को उसके वंशज मानते हैं.
.
Isaac का बेटा Jacob समय चलते Israel कहलाया. उस के १२ पुत्र हुए जो 12 Tribes_of_Israel के पूर्वज माने जाते हैं और उसके वंशज खुद को हमेशा इजराइल या “ नेशन ऑफ़ इजराइल “ ही कहते आए है. यहूदी खुद को ईश्वर के चुने हुए लोग मानते हैं और उसके प्रणित धर्म के नेक बन्दे. यहूदी मातापिता के संतान ही यहूदी हो सकते थे, अन्यों को यहूदी होना संभव नहीं था (अब होने लगा है ऐसा पढ़ा है, पक्की मालूमात नहीं). यह धर्म में भी प्रेषित होते थे.
.
सदियों बाद इस्लाम आया. ह. मुहम्मद ने प्रेषित होने का दावा किया और साथ में यह भी ऐलान किया कि पूर्व प्रेषितों के सभी अनुयायी (यहूदी और इसाई ) अब उन्हें अपना लास्ट एंड फाइनल प्रेषित माने. दोनों ने मानने से मना कर दिया तो उनसे दुश्मनी ले ली और उनसे ता कयामत दुश्मनी अपने अनुयायियों के लिए फर्ज बना दिया.
.
जहाँ यहूदी अपने १२ कबीलों को राष्ट्र संबोधित करते रहे, मुसलमानों ने तो उनसे भी बढ़ कर सिक्सर मार दी. दर –उल –इस्लाम की व्यख्या कर के उन्होंने तो इस्लाम को पूरे विश्व का अधिपति बनाने की उदघोषणा कर डाली, सिर्फ एक नेशन होने से उनका मन भरा नहीं !
.
फर्क समझ लें, एक कट्टर मुस्लिम के नज़र में इस्लाम विश्व का धर्म नहीं, सत्ताधीश है. वह मुसलमान अल्लाह का कहा मान रहा है और उसकी सत्ता कायम करने में अपना फर्ज निभा रहा है. जहाँ ऐसी सत्ता नहीं है वहां उसे लाने में वो मददगार होना चाहता है. उसके नजर में गैर मुस्लिम राष्ट्र में जो मुसलमान रहते हैं, वे अपने आप में दर –उल –इस्लाम हैं, इस्लाम की दुनिया का हिस्सा है - उस राष्ट्र के भीतर एक अलग मुल्क ! अब जब तक आप अपने कायदे – कानूनों से ही चलने की मुसलमानों की जिद को इस नज़रिए से नहीं देखेंगे, बात की असलियत - और अहमियत भी - समझ में नहीं आएगी. जब देख पायेंगे, बहुत सारे राज खुलते नज़र आयेगे.
.
सावरकर जी की भेदक नज़र से यह राज छुपा न था. इसीलिए उन्होंने एक घोषणा द्वारा यह भेद को उजागर किया धर्मांतर म्हणजेच राष्ट्रांतर“ - धर्मांतर, राष्ट्रांतर ही होता है !
.
उम्मीद है मेरा भाव आप समझ गए होंगे. अगर आप की भी यही भावना है तो इस पोस्ट शेयर करने का अनुरोध है. नीचे चार बटन हैं, जहां चाहे शेयर कर सकते हैं.

Cognitive Dissonance उर्फ सेक्युलरों की कायरता।

अपनी भूल को भूल मानने से जो इन्कार किया जाता है, उसको सही ठहराने के लिए जो जो शाब्दिक गुलाण्ट मारे जाते हैं या फिर यथासंभव जहां दबाव और दबंगाई से भी काम लिया जाता है कि तुम्हारी औकात क्या है जो हमें सही गलत का फर्क सिखाओगे - उस व्यवहार को कोग्निटिव डिसोनान्स कहा जाता है ।
कई बार लिख चुका हूँ कि कुछ साल पहले मैं भी खासा औरों जैसा सेक्युलर हुआ करता था, आज अगर हिन्दुत्ववादी कहलाता हूँ तो यह भी विरोधियों का लगाया हुआ लेबल है, मैं केवल अपने समाज के अस्तित्व को मिली हुई चुनौती की बात कर रहा हूँ, सामने दिखते खतरे की बात कर रहा हूँ और चूंकि खतरा है, उसका प्रतिकार कैसे किया जाये इसकी बात करता हूँ । इसके लिए संघी कहलाता हूँ जो कि असलमें हर जागृत हिन्दू के लिए गिरोह द्वारा दी हुई गाली है। संघ का मैं कोई पदाधिकारी नहीं हूँ लेकिन संघी कहलाता हूँ। हर हिन्दू जो हिंदुओं को घेरे हुए संकटों की बात करेगा, आज की तारीख में पहले भक्त और बाद में संघी कहलाएगा।
मेरी सेक्युलरिता दूर करने में किसी व्यक्ति का नहीं लेकिन मीडिया का ही योगदान है । खबरों ने विचलित किया जिसके कारण नेट पर संबन्धित खबरें पढ़ने लगा। नेट की व्याप्ति की वजह से कड़ियाँ जुड़ती गयी, पढ़ाई बढ़ती गयी। फिर चुप रहा नहीं गया । मैं भी बोलने लिखने लगा।
यहाँ मैंने पाया कि लोग जुडते गए, कारवां बनता गया तो वॉल खुली होने के कारण वे लोग भी आ गए जिनकी विचारधारा को लेकर मैं लिख रहा था । दुखद है कि विमर्श से अधिक विरोध में थे क्योंकि उनकी बात को मैं बिना जाँचे परखे स्वीकारने को तैयार नहीं था । इसलिए मुझे संघी कह देना उनके लिए सब से आसान बात थी ।
इसके बाद मैंने पाया कि अपने ही परिजन या परिचितों में भी लोग इन बातों को लेकर असहज थे। जहां कोई बाहरी नहीं था वहाँ भी वे असहज थे । कमाल की बात यह थी कि मेरी बातों की कोई काट उनके पास नहीं होती थी, कई तो दबे सुरों में सहमत भी होते थे, लेकिन समर्थन ? ना बाबा ना !
लेकिन एक बात समझ में आने लगी कि यह उनका सेक्युलरिज़्म से लगाव नहीं है, ये वर्तमान पोलिटिकल करेक्टनेस के नेरेटिव के शिकार हैं और बोलने से डरते हैं । कुछों के डर असली होंगे, लेकिन अधिकतर लोग अपने ही डरों से डरते हैं । जो भय उनके अन्तर्मन में स्थापित है, वही उन्हें किसी बाहरी व्यक्ति से अधिक भयभीत करने में सक्षम है ।
लेकिन न ये अपने डर का सामना करना चाहते हैं और ना ही मानना चाहते हैं कि वे डरते हैं । जिस बात का उन्हें डर है वह बात लड़ने योग्य है या नहीं, वह विचारधारा इनका सामाजिक अस्तित्व समाप्त करने को प्रतिबद्ध है या नहीं इसपर सोच तो बहुत आगे की चीज है । ये सब सोचने से भी इन्हें बहुत डर लगता है ।
इसलिए ये जब सेक्युलरिज़्म के नाम से चिल्लाएँ तो चिंतित न हों, ये दूसरों का इन्हें डर है जिसके कारण वे आप पर चिल्लाते हैं। बाद में धीमें से पूछेंगे - आप को डर नहीं लगता ?
इससे और क्या सबूत चाहिए ?
वैसे कोग्निटिव डिसोनान्स पर एक पोस्ट लिखी थी कभी, जो शांति से संबन्धित है, चाहे तो यहाँ देख सकते हैं ।
https://bit.ly/2QAWRFj
https://bit.ly/2TMetA5

नॉर्वे का नथुराम

पेशावर स्कूल में जो बच्चे मारे गए थे,  आप को याद ही होगा। माताओं का विलाप हृदय को हमेशा दहला देता है, चाहे शत्रु की माता ही क्यों न हों । लेकिन इससे शत्रु का संहार करना कम अनिवार्य नहीं होता और न ही हाथ कांपना चाहिए, नहीं तो अपनी मौत निश्चित होती है । और यह भी जान लीजिये कि शत्रुत्व की शुरुआत उनकी तरफ से हुई है, हमेशा । इस बात को भूलना नहीं चाहिए, वे कितने भी झूठ के ढ़ोल पीट लें ।

अस्तु, पेशावर के हत्याकांड को लेकर एक अलग नजरिया रख रहा हूँ । कहीं ऐसा तो नहीं कि यह संदेश दिया गया कि हमें अपने बच्चों की बलि तुम्हारे लिए चढ़ाना स्वीकार नहीं ? हम बच्चे पैदा करते हैं तो हमारे भी उनके लिए कोई अरमान हैं, बस तुम्हारे लिए लड़ाके और बच्चे पैदा करने की मशीनें नहीं बनाना उनको । बच्चा खोने का दुख हम भी समझा देते हैं तुम्हारी औरतों को क्योंकि तुम तो यह बात उनसे करोगे नहीं !

वाम हो या इस्लाम हो, अपने खिलाफ उठती आवाजों को दबा देना उनका इतिहास ही नहीं, उनकी परंपरा भी है और उनके नजर में परम समर्थनीय भी क्योंकि वाम या इस्लामी शासन पर सवाल उठाना ही गुनाह करार दिया गया है । इसलिए मारनेवालों को निर्दयता से मारा गया, उनके कारण कभी सामने आए नहीं, जो भी आया वो सरकारी लीपापोती ही थी।

लेकिन इसपर यहाँ के किसी भी fiberal को कुछ भी अजीब नहीं लगा। बच्चे मारे गए थे, माताएँ रो रही थी तो उनके दुख में सहभागी हो कर मारनेवालों की निंदा करना ही आसान था। यहाँ उन्हें कारण ढूँढने नहीं थे, क्योंकि यहाँ के भायजान लोगों से रिश्ता भी निभाना था ।

झूठ का दबाव हद पार कर जाता है तो कहीं प्रतिक्रिया होती है । नॉर्वे में भी हुई थी जब एक व्यक्ति ने 2011 में कुल 77 जानें ली थी। राजधानी ओस्लो के नजदीक एक द्वीप है उतोया, जो पिकनिक स्पॉट भी है । राजधानी ओस्लो में उसने एच ब्लॉक नामक एक बिल्डिंग में बम लगाया था और वहाँ भी कुछ लोग मारकर भागा था । उल्लेखनीय है कि इस एच ब्लॉक में नॉर्वे के प्रधानमंत्री का ऑफिस है । बम उसकी अपेक्षा जितना नुकसान नहीं कर पाया, या उसे उतना नुकसान करना भी नहीं था यह पता नहीं चल पाया । इसलिए पता नहीं चल पाया क्योंकि उस आदमी पर जो मुकदमा चला वहाँ उसके बयान को सार्वजनिक नहीं होने दिया है, बस उसको जो सज़ा हुई है उसका ही पता चला है । ता उम्र कैद है, क्योंकि नॉर्वे में मृत्युदंड देने की मनाई है ।

बच्चे जो मारे गए, उनके नाम, वय आदि ही उपलब्ध है, एक बात को प्रचारित नहीं किया जाता कि ये सभी बच्चे सत्ताधारी पक्ष के युवा वाहिनी से संबन्धित थे तथा उनके अभिभावक भी सत्ताधारी पक्ष से जुड़े हैं । कौनसे नेता या मंत्री ने अपनी संतान खोयी इसपर चुप्पी है । पूर्व प्रधानमंत्री की पोती / नाती भी उस पिकनिक में थी । लेकिन सरकार ने नेता या पक्ष कार्यकर्ताओं को हुए इस नुकसान को कोई हवा नहीं दी।

अधिकांश जगहों पर हत्यारे के उद्देशों को लेकर मौन है । हालांकि जब हत्या ताजा थी तब कुछ खबरें थी लेकिन बाद में वे डिलीट हुई शायद, अब जो भी रिपोर्ट हैं काफी साफ सफाई किए हुए हैं ।

लेकिन आप ने जो अब तक ऊपरी तीन परिच्छेदों में पढ़ा है, उनके आधार पर मैं उस व्यक्ति को नॉर्वे का नथुराम कहूँ तो आप को शायद आश्चर्य नहीं होगा।

बहुत अरसे बाद एक लंबे लेख में उसके उद्दिष्टों का छोटा सा उल्लेख है । अर्थात उसे बहुत हल्के में लिया गया है और उस व्यक्ति की तथा उसके उद्दिष्टों की भी भरपूर निंदा करने के बाद ही आठ दस वाक्यों में उसकी बात को समेटा गया है तथा उसका मज़ाक भी उड़ाया गया है । लेकिन शुक्र है कि कम से कम उसका उल्लेख तो किया है किसी ने ।

क्या लिखा है उसके उद्देशों के बारे में ?

Earlier that day, before he parked the Volkswagen van at H-Block, he e-mailed a document to 8,000 acquaintances and strangers explaining what he was about to do and why. It has an ominous title—”2083: A European Declaration of Independence”—and is illustrated at the end with photos of Breivik pointing guns and sheathed in a biohazard suit and sporting regal costumes he has made befitting a commander. The document (he calls it “the compendium”) is 1,500 pages long and praises, among others, Pamela Geller and Robert Spencer. He claims it required several years and almost $400,000 to produce.
It is written, densely and ponderously, with a pretense of scholarship. It is also historically illiterate and thematically illogical and can be reduced to an index card: Liberals are willfully enabling radical Muslims to destroy European civilization. Therefore, liberals must be killed.

Breivik never denies committing the crimes, only that they are, in fact, criminal acts. He believes Islamicization is an existential threat to the West and that hunting teenagers at a summer camp and blowing up office workers and pedestrians is the brutal yet necessary beginning of a counterrevolution.

He believes history will revere him.

He fears only that he, and thus his ideas, will be found insane.

उसने एक बड़ा ग्रंथ लिखा है जिसको लिखते कई साल लगे और लगभग चार लाख डॉलर खर्च हुए । कहा है कि उसे इतिहास का सेंस नहीं है, कोई लॉजिक का ज्ञान नहीं और जो इतने ढेर सारे पन्ने हैं उसका सार एक इंडेक्स कार्ड में आ सकता है – नॉर्वे के लिबरल सत्ताधारी जान बूझकर, सोच समझकर मुस्लिम अतिवादियों को यूरोपीय संस्कृति का विध्वंस करने दे रहे हैं । इसलिए लिबरलों को मारना आवश्यक है । वो अपने कृत्यों को नकारता नहीं, केवल उन्हें गुनाह नहीं मानता । वो दृढ़ता से मानता है कि इस्लाम तो पश्चिमी सभ्यता के अस्तित्व पर ही खतरा है और उसने जो किया वो प्रतिक्रांति की एक क्रूरतापूर्ण किन्तु आवश्यक शुरुआत है ।

वो यह मानता है कि इतिहास उसके साथ न्याय करेगा। लेकिन उसे डर है कि उसे पागल ठहराया जाएगा अत: उसके विचारों को भी पागलपन ठहराया जाएगा।

लिंक यह रही, यह परिच्छेद लगभग अंत में है लेकिन इतना भी अंत में नहीं कि पाठक उसे याद रखे।

https://www.gq.com/story/anders-behring-breivik-norway-massacre-story

जिन बच्चों को मार दिया वे पंद्रह से उन्नीस के बीच के थे । नॉर्वे में लिबरल्स शादियाँ कम करते हैं और बच्चे उससे भी कम पैदा करते हैं । बच्चों की उम्र कुछ ऐसी है कि इस उम्र में माँ बाप के लिए दूसरा बच्चा पैदा करना और उसका सिरे से लेकर लालन पालन अशक्य हो जाता है ।

इसे “नॉर्वे का नथुराम” यूं ही नहीं कहा है ।

पेशावर के मिलिटरी स्कूल में पाकिस्तानी फौजी अफसरों के बच्चों का संहार हो या यह नॉर्वे का नरसंहार हो, दोनों में कहीं तो प्रेशर कुकर की सीटी सुनाई देती है । इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना।

आप कहें जो कहना है, इस लेख की लिंक कॉपी पेस्ट कर के अन्यों को शेयर कर सकते हैं । नीचे चार ऑप्शन हैं जहां चाहें शेयर करने के लिए सिर्फ वह बटन क्लिक करें, बाकी काम अपने आप हो जाएगा।

याद कीजिये, आप के नज़र में कौनसी सेवाएँ आवश्यक हैं ?

आप की नज़र में आवश्यक सेवाएँ क्या क्या हैं ? कृपया उन आवश्यक सेवाओं की लिस्ट बनाएँ जिनके बिना आप के लिए जीना दुश्वार है । घर पर बिजली पानी से ले कर दूध, चाय, विविध होम डिलिवरी की सेवाएँ, होटल, ढाबा, टपरी, सिगरेट, पान गुटखा, दारू तथा FB और WA भी गिन सकते हैं । गटर सिस्टम ठीक से काम करना , चोक हो कर न बहना आदि भी ।
  1. अब खुद से ही यह पूछिए कि अगर ये सेवाएँ खंडित हो जाएँ तो आप के सब्र का बांध कितने समय में टूटेगा ?
  2. कितने समय में आप गालियां देने लगेंगे, कितने समय में हिंसा पर उतारू हो जाएँगे ?
  3. कितने समय में आप सरकार पर इसका ठीकरा फोड़कर सामने पड़ते सरकारी कर्मचारी को मारपीट पर आमादा हो जाएँगे ?
  4. कितने समय में इन्हें मुहैया करनेका वादा करनेवाले के सामने दंडवत हो जाएँगे, उसकी कोई भी शर्तों को मानकर ? हाँ, कारण होते ही हैं, मैं तो झेल लेता लेकिन पत्नी की, बच्चे की , बूढ़े माँ बाप की हालत देखी नहीं जाती मेरे से ..... 

---------------------------------------------
उत्तर लिखने की आवश्यकता नहीं । ये सब इसलिए गिनवाया ताकि युद्धसमय में यह सब हो जाता है । जो युद्ध हम पहले लड़ चुके हैं वहाँ हमारे शत्रुओं को तब मिसाइल टेक्नोलोजी उपलब्ध नहीं थी, इसलिए हमारे शहर बचे रहे । आज सब को वो टेक्नोलोजी उपलब्ध है और शहर प्रथम निशानेपर होते हैं । इसीलिए जो भी बम ब्लास्ट्स हुए, शहरों में ही तो हुए थे । हाँ, हम भी उनको बर्बाद कर देंगे इसी विश्वास के कारण हमारे शत्रु भी फुल स्केल वॉर नहीं छेड़ते।

और अगर किसी को यह मुगालता है कि मिसाइल हवा में ही रोके जा सकते हैं, तो यह बात सम्पूर्ण सत्य नहीं है । इसीलिए तो उत्तर कोरिया की धमकियों को अमेरिका गंभीरता से लेता है और संवाद बनाए रखता है ।
बाकी सावधान रहें, जरूरतें कम करें, अपने से कम सम्पन्न धर्मबंधुओं को अपने पैरों पर खड़े होने में यथाशक्ति सहायता करें । क्योंकि युद्ध हमेशा सेनाओं के बीच ही नहीं होता बल्कि नागरिकों को मानसिक गुलाम बनाकर राष्ट्र जीते जाते हैं । 

-----------------------------------------------
यह  ब्लॉग पोस्ट लिखने का कारण यही है कि समाज में हमेशा जल्द तैश में आनेवालों की कमी नहीं होती । सरकार की मर्दानगी उनका पसंदीदा शिगूफ़ा होता है । इनको उलाहना देकर उकसाना आसान होता है और सरकार विरोधी इनको ही टार्गेट करते हैं ताकि वे दूर रहें और येही उनका काम कर दें । ऐसा ही होता भी रहा है ।

दूसरे विश्वयुद्ध के समय ब्रिटेन में एक पोस्टर मुहिम चलाई गयी थी - Careless Talk Costs Lives - बातों में लापरवाही जानलेवा हो सकती है । गूगल पर images में सर्च कीजिये । और हाँ, कृपया Bomb damage in London in WW II गूगल कर के वे फ़ोटोज़ भी अवश्य देखें । London की जगह Berlin भी लिखकर देखिये ।

Cognitive Dissonance का प्रैशर कूकर

Cognitive Dissonance का प्रैशर कूकर

सबसे पहले Cognitive Dissonance का अर्थ समझ लें. अगर मनुष्य का किसी ऐसी जानकारी से सामना हो जाये या उसे कोई ऐसी जानकारी दी जाये, जो उसकी कोई दृढ़ मान्यता – विश्वास – श्रद्धा को ध्वस्त कर दें, तो जो मानसिक स्थिति पैदा होती है उसे Cognitive Dissonance कहते हैं । अचानक वो मानसिक रूप से खुद को एक शून्य अवकाश में लटकता पाता है और आधार के लिए हाथ पैर मारता है । 

Dissonance याने विसंगति, या अगर संगीत के परिभाषा में देखें तो बेसुरापन. मानव का स्वाभाविक आकर्षण सुसंगति या सुर (harmony) में रहने के लिए होता है, और उसका मन वही प्रयास करता है कि Cognitive Harmony पुनर्स्थापित हों । अब इस हेतु वह कोई आधार खोजता है... कोई सबूत खोजता है जो उसे Harmony पुनर्स्थापित करने हेतु योग्य लगे.. लेकिन यहाँ एक खतरा है, जिसमें वह अक्सर फंस ही जाता है. क्या है वह खतरा? 

इस स्थिति में उसका तर्क कठोर नहीं रह जाता. वह निष्पक्ष नहीं रहता. वह यह भी नहीं देखता कि मिलनेवाला तर्क या सबूत सत्यता की कसौटी पर कितना खरा उतरता है. उसके लिए यह काफी है अगर वह उसकी स्थापित मान्यता को फिर से मजबूत कर सके. वह यह नहीं देखता कि जहां से ये आधार लिया जा रहा है वह कितना विश्वसनीय है. उस वक़्त तिनका भी जहाज हो जाता है उसके लिए. 
ऐसा क्यूँ होता है? 

असल में सब से बड़ी बात है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ख नहीं दिखना चाहता. वह नहीं चाहता कि कोई उस पर हँसे या उसे मूर्ख कहे कि वह किसी झूठ पर कैसे विश्वास करता रहा. इसलिए वह अपने जैसों को खोजता है. कोई महंगी चीज खरीदता है, तो उसके दस और खरीदार ढूँढता है, ताकि कल वह वस्तु फेल हो जाये तो उन दस लोगों का हवाला अपनी पत्नी और बाकी परिवार को दे सके. वह खुद उस वस्तु का मुफ्त प्रचारक भी बन जाता है. अपने निर्णय के समर्थन में संख्या का उसे बड़ा आधार महसूस होता है. जितनी बड़ी संख्या, उतना बड़ा सत्य. 

धर्म के बारे में भी यही चीज होती है. अगर उसका मन उसे सवाल करता भी है, तो अपने मन को यही कहकर चुप कराता है – कि इतने सारे लोग मूर्ख हैं क्या? घर के बड़े, समाज के बड़े और देश और विश्व में इतने लोग अगर इसमें मानते हैं तो क्या वे मूर्ख हैं? मेरे से अधिक जानकार, अधिक विद्वान... और बड़े बड़े तीस्मारखां मानते हैं तो सत्य ही होगा. यहाँ पर एक बात और भी दिखती है. संख्या से जुड़कर न केवल खुद को आश्वस्त किया जाता है, बल्कि संख्या को अपने साथ जोड़कर विरोधी विचारकों को परास्त भी किया जाता है. जहां तक बात चर्चा, संवाद और विवाद तक सीमित है, ठीक है, लेकिन यह अक्सर हिंसा पर भी उतर आती है.

अगर फिर भी उसको कोई टोके या उसके प्रचार को ही नहीं बल्कि उसके विश्वास को ही बेबुनियाद साबित करें तो उसको बड़ा धक्का पहुंचता है. लेकिन इस वक़्त भी वो तिनके ही पहले ढूँढता है, और खोखले तिनकों के देनेवालों को अपना तारणहार मानता है. तर्क से नहीं लेकिन तर्क की परिणति से अधिक डरता है, क्योंकि अंत में जब सत्य का सामना होगा तो तेज:पुंज सामर्थ्यशाली कवचधारी योद्धा, केवल एक बिजूका – कागभगोड़ा दिखाई देगा. उसकी पूरी प्रतिमा ध्वस्त होगी, जिसके रक्षण के लिए वो जरूरत पड़ने पर हिंसक भी हो जाता है. 

  1. वह प्रश्नकर्ता की विश्वसनीयता पर पहला वार करता है – तुम झूठ बोल रहे हो. 
  2. दूसरा वार प्रश्नकर्ता की बनिस्बत अपनी योग्यता पर होता है, वह पूछता है – तुम्हारी औकात क्या है जो हमें सिखाने चले आए हो? 
  3. तीसरा वार प्रश्नकर्ता की निजता पर होता है, जो यूं देखें तो उसको भगाने के लिए होता है – तुम अपनी गिरेबान में झाँको जरा. यहाँ कुछ आरोप लगाकर निकल लेने की कवायद होती है, कि सामनेवाला भी नंगा हो जाये तो चुप हो जाएगा. सत्य का सामना नहीं करना पड़ेगा. 
  4. चौथा और सब से हिंसक वार यह होता है, कि तुम्हें हम से शत्रुता है, इसलिए ऐसे कह रहे हो, नफरत फैला रहे हो, तुम्हारे साथ कठोर से कठोर व्यवहार होना चाहिए. अब यहाँ कुछ भी हो सकता है और अक्सर विश्व भर में होता आया है. 


इसी बात के तहत ये मजेदार कहानी भी फिट बैठती है कि :- एक मनुष्य की टांग टूटी तो उसे बैसाखी लेनी पड़ी. बाद में वह तो सामान्य लोगों से भी अधिक चपल हो गया, तो लोगों में जिज्ञासा जागी और उन्होने भी जरूरत न होते भी बैसाखी अपनाई. बाद में तो यह प्रथा ही हो गयी और बगैर बैसाखी चलने पर रोक लगा दी गयी. अगर किसी ने बगैर बैसाखी चलने की जुर्रत की, तो या तो उसकी टांग तोड़ी गयी या वो गाँव छोड़ गए – बेचारे और कर ही क्या सकते थे? 
------------------
इंटरनेट के कारण हिंदुस्तान में Cognitive Dissonance का सब से बड़ा मारा कोई है तो युवा मुसलमान है. वह जानता है कि अब सब जानते हैं कि जब उसके पुरखों ने इस्लाम कुबूल किया होगा, वह कोई बहुत गौरवशाली घटना नहीं होगी. वह जिनसे अपना संबंध बता रहा है, उनकी नजर में तो उसकी औकात धूल बराबर भी नहीं है यह भी सब जानते हैं. समाज के तथाकथित रहनुमाओं ने समाज को मजहब के नाम पर पिछड़ा रखा है, यह भी उसे पता है. वह लगातार जिस मजहब की बड़ाई करता है, उसकी भी जानकारी सब को हासिल होने लगी है, यहाँ तक कि काफिर इस्लाम के बारे में उस से ज्यादा जानने लगे हैं और उनके सवाल, मन में सवाल पैदा कर रहे हैं कि क्या उसकी श्रद्धा सही है? उसकी हालत उस बाप की तरह है जो अपनी बेटी की मासूमियत को चिल्लाकर साबित करने की कोशिश कर रहा हो, और बेटी को उसी वक़्त आई मितली सब के सामने सच्चाई खोल दें.

अब सवाल यह है कि भारत का मुसलमान क्या करेगा? सोशल मीडिया में आजकल वो पहले जैसा आक्रामक नहीं दिखता – बुरी तरह एक्सपोज हो चुका है, और जानता है कि गंदी गालियां देना अपनी जीत नहीं है. वह कहाँ तक ये कह सकता है, कि आप लोग कुछ जानते नहीं तो कुछ बोलना मत, जबकि उसके सामने रखी आयत, खुद उसके लिए अरबी हरफ ऊंट बराबर है? कहाँ तक जाति प्रथा को ले कर टोकेगा, जब पास्मांदा और अशरफ के बारे में सवाल पूछे जाएंगे? और कहाँ तक काफिर देवताओं के नाम से गालियां देगा, जब हजरत के चरित्र के प्रसंग सही सबूतों के साथ उजागर किए जाते हैं ? कहीं तो मन के आईने में वो सच्चाई की बदसूरत शक्ल देख ही रहा है. Cognitive Dissonance सिद्धांत अपना काम कर रहा है. उसे समझ आ रहा है कि आज तक उसे सिर्फ इस्तेमाल किया गया है और अभी भी किया जा रहा है. कहीं तो वह वैचारिक खालीपन में सहारा ढूंढ रहा है. 

और इसी स्तर पर उसे सहारा देने के लिए "तिनकों के दुकानदार" दौड़े आ रहे हैं. मेमन को शहीद कहनेवाली यही जमात है. गोद में उठाई जानेवाली छोटी बच्ची को भी हिजाब पहनाने वाले यही हैं. मदरसे में साईंस आवश्यक कर देने पर हल्ला मचानेवाले यही लोग हैं. अपनी दुकानों को ही उन्होने मजहब का नाम दे रखा है और दूकानदारी खतरे में दिखती है, तो मजहब खतरे में होने की आवाज उठाई जाती है.

हिंदुस्तान का युवा मुसलमान वाकई एक प्रैशर कूकर में है. Cognitive Dissonance का अभूतपूर्व प्रैशर है इक्कीसवीं सदी में. देखना यह है कि इस प्रेशर का निपटारा कैसे होगा. दुकानदार तो उन्हें इस तरह आंच दे रहे हैं कि कुकर का विस्फोट ही हो. भाँप अंदर जम रही है, सीटी तो रह रह कर बज रही है. इस खदबदाहट को उचित मार्ग दिखाकर ठण्डा करने में ना तो मुस्लिम धार्मिक नेताओं की रूचि है और ना ही सेकुलर-वामपंथ के पैरोकार इस युवा मुस्लिम को समझाते हैं कि वह किस खोखली जमीन पर खड़ा है...

इस "प्रेशर कूकर" की सीटी किसे सुनाई दे रही है?